जाति जनगणना का फैसला विध्वंसक है, कभी सोचा है कि इसके परिणाम कितने घातक होंगे?

भारत में जाति जनगणना कराने की बात मोदी सरकार ने मान ली है. अंग्रेजों के जाने के बाद से भारत में जाति जनगणना बंद कर दी गई थी. यूपीए सरकार के दौरान 2011 की जनगणना में जाति जनगणना हुई पर कभी रिपोर्ट जनता के सामने नहीं आ सकी.
तत्कालीन सरकार में शामिल लोगों ने उस समय हुई जाति जनगणना की रिपोर्ट को रोकने में अपनी पूरी ताकत लगा दी. पर सत्ता हाथ से जाने के बाद उन्हीं लोगों ने दोगुनी ताकत से नरेंद्र मोदी सरकार पर ऐसा दबाव बनाया कि सरकार ने अब जाति जनगणना कराने का फैसला कर लिया है. इतना तो तय है कि सरकार ने यह फैसला मजबूरी में लिया है. पर इसके परिणाम जो होंगे वो मजबूरी वाले नहीं होंगे.
जाति जनगणना का मतलब ही है कि भविष्य में आरक्षण का दायरा बढ़ाया जाएगा. लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी ने जाति जनगणना कराने की घोषणा होने के बाद ही डिमांड रख दी है कि जाति जनगणना का मतलब तभी पूरा होगा जब आरक्षण के 50 प्रतिशत वाले कैप को भी सरकार खत्म करे. ताकि पिछड़ों को आरक्षण 60, 70, 80 से 90 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सके. मंडलवादी पार्टियों की इन्हीं नीतियों के चलते ही देश 1990 से 2000 तक ऐसा अस्थिर हुआ कि एक मजबूत सरकार देश को नसीब नहीं हुई. उस एक दशक में भारत अपने बराबर के देशों जैसे चीन आदि से दशकों पीछे हो गया था. राजनीतिक अस्थिरता ऐसी रही कि देश भ्रष्टाचार और आतंकवाद के काले साए में समाया रहा. जाहिर है कि एक बार फिर वही कहानी दुहराए जाने का अंदेशा जताया जा रहा है. क्योंकि अब तो मंडलवादी पार्टियां और कांग्रेस दोनों ही इस मुद्दे पर एक हो गईं हैं. जाहिर है कि समस्या और गंभीर होने वाली है.
1-सामाजिक विभाजन के चलते प्रचंड तनाव बढ़ेगा
भारत में जाति एक संवेदनशील मुद्दा रहा है. जनगणना में शामिल करने से जातिगत पहचान को और मजबूती मिलने की आशंका है. जाति जनगणना के बाद OBC, SC, और ST की सटीक आबादी और उनकी स्थिति का पता चलेगा. 1990 में केवल अगड़ों ने संघर्ष किया था. पर अब दलित-आदिवासी और ईबीसी जातियां भी आंदोलनकारी होंगी. बहुत सी ऐसी जातियां हैं जो बहुत पिछड़ी हैं पर वो संख्या बल में कमजोर हैं. उनके साथ कैसे न्याय होगा, यह विचारणीय है. जाहिर है कि पिछड़ी जातियों में ही खींचतान बढ़ेगी. लोग मरने मारने पर उतारू होंगे. उच्च जातियों में भी यह डर पैदा हो सकता है कि उनकी हिस्सेदारी कम होगी. जाहिर इसके चलते एक बार फिर अगड़ा बनाम पिछड़ा वर्ग का तनाव बढ़ेगा. जैसा कि 1990 में देखा गया था. 1990 में तनाव जल्दी ही शांत हो गया था. इसका कारण था कि लोगों को अपना संख्या बल नहीं पता था. इस बार संघर्ष होगा तो रुकने का नाम नहीं लेगा.
X पर फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री लिखते हैं कि जाति जनगणना जातिवाद को संस्थागत करेगा और सामाजिक एकता को कमजोर करेगा. 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के कार्यान्वयन के बाद हुए विरोध प्रदर्शनों और सामाजिक तनाव इसका उदाहरण हैं.
2-राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए सोशल इंजीनियरिंग के नए फॉर्मूले बढ़ाएंगे तनाव
जाति जनगणना से विभिन्न जातियों की संख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का डेटा मिलेगा, जिसका उपयोग राजनीतिक दल वोट बैंक की राजनीति के लिए करेंगे. कांग्रेस और मंडलवादी पार्टियां ही नहीं बीजेपी भी OBC वोट बैंक को मजबूत करने के लिए इसका उपयोग करेगी. ये ध्रुवीकरण सामाजिक एकता के बजाय जातिगत एकता को बढ़ाएगा. राजनीतिक दल इसके लिए समाज में जहर घोलने का काम करेंगे ताकि वोटिंग उनके पैटर्न पर हो.
जाति जनगणना से कुछ जातियों को लग सकता है कि उनकी स्थिति को कम आँका गया है, जिससे विरोध प्रदर्शन और हिंसा हो सकती है. 2018 में मराठा और जाट आरक्षण आंदोलनों ने सामाजिक अस्थिरता पैदा की थी, और जाति जनगणना इसे और बढ़ा सकती है.
ग्रामीण क्षेत्रों में जाति की पहचान अधिक मजबूत है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह कम प्रासंगिक हो रही है. जाति जनगणना इस विभाजन को और गहरा सकती है, जिससे सामाजिक एकता को नुकसान पहुंचेगा.
3- जातियों की जटिलता सर्वे को मुश्किल बनाएगी और सरकारों को खतरे में डाल देगी
2011 में हुई जाति जनगणना की असफलता ने दिखाया कि जाति जनगणना जटिल है. यही नहीं बिहार में हुए नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की सरकार में हुए सर्वे को कांग्रेस सही नहीं मानती है. कई जातियां भी कहती हैं कि सर्वे में झोल है. जाहिर है कि जाति जनगणना का कोई पैटर्न अभी तक सामने नहीं आ सका है जिसमें झोल न हो. भारत में 4,000 से अधिक जातियाँ और असंख्य उपजातियां हैं, और इनका सटीक वर्गीकरण मुश्किल है. गलत डेटा नीतिगत त्रुटियों और सामाजिक असंतोष का कारण बन सकता है. बहुत सी जातियां खुद को सवर्म मानती हैं , और बहुत सी जातियां जो सवर्ण हैं पर उन्हें आरक्षण चाहिए इसलिए वो ओबीसी क्लास में आने चाहते हैं. महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन के समय इस तरह की दिक्कत सामने आई थी. कर्नाटक में 2015 के जाति सर्वेक्षण को लिंगायत और वोक्कालिगा समुदायों के दबाव के कारण सार्वजनिक नहीं किया गया. ऐसी दिक्कत से पूरा देश दो-चार होगा. जिसका कोई समाधान फिलहाल अभी दिखाई नहीं दे रहा है.
4-आरक्षण की आग में फिर से झुलसने का खतरा
जाति जनगणना से यह पता चल सकता है कि कुछ जातियां सामाजिक-आर्थिक रूप से अधिक पिछड़ी हैं, जिससे आरक्षण की नई मांग उठनी तय है. सुप्रीम कोर्ट ने 50% आरक्षण की सीमा तय की है, और इसे हटाने की मांग पहले से ही हो रही है. कांग्रेस ने 2024 के लोकसभा चुनावों में यह कैप खत्म करने का वादा किया है. जाहिर है कि कुछ दिनों बाद सरकार की मजबूरी हो जाएगी कि संविधान संशोधन करके 50 प्रतिशत के इस कैप को खत्म किया जाए.
इतना ही नहीं जातियों की संख्या पता चलने ओबीसी वर्ग और संगठित तरीके से प्राइवेट सेक्टर में भी जाति आधारित आरक्षण की मांग करेगा. जाहिर है कि यह मांग देश की सामाजिक व्यवस्था के लिए ही नहीं आर्थिक ढांचे के लिए भी खतरनाक साबित होगा. वर्तमान प्राइवेट सेक्टर में लोग अपनी प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ रहे हैं. जातियों की घुसपैठ यहां होने के बाद प्राइवेट सेक्टर की स्थिति भी खराब होने की ओर होगी.
लोकसभा और विधानसभा में ओबीसी वर्ग चाहेगा कि उसे दलितों की ही तरह आरक्षण मिले. महिलाओं को जो आरक्षण दिया गया है उसमें भी ओबीसी वर्ग आरक्षण के लिए संघर्ष करेगा.कई राज्यों में स्थानीय निकायों में दलितों के साथ ओबीसी वर्ग को भी आरक्षण दिया गया है. जाहिर है कि इसका सीधा नुकसान सवर्णों को होगा.
5- जाति के आधार पर संसाधनों के बंटवारे की डिमांड देश को दशकों पीछे ले जाएगी
दुनिया भर के देशों में कहीं भी इस तरह की व्यवस्था नहीं है जहां सरकारी नौकरियों , सरकारी संसाधनों आदि का निर्धारण जाति को आधार मानकर किया जाता हो. कल्पना करिए कि अगर 90 प्रतिशत खास जगहों पर बैठने वाले लोगों का फैसला उनके टैलेंट की बजाए उनकी जाति से होने लगे तो देश का क्या होगा. जाहिर अजगर का आकार जितना बढ़ेगा उसकी भूख बढ़ती जाएगी. बजट बनाने वाले, क्रिकेट मैच खेलने वाले, ओलंपिक में जाने वाले, रेलवे और सरकारी टेंडर , प्राइवेट सेक्टर के लिए अलॉट वाले जमीन आदि पर जाति के आधार पर लोग अपना हक मांगेगे.
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