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पाकिस्तान को चीन-तुर्की-अजरबैजान का साथ! भारत संग इजरायल के अलावा और कौन?

 

पाकिस्तान को चीन-तुर्की-अजरबैजान का साथ! भारत संग इजरायल के अलावा और कौन?

पाकिस्तान छटपटा गया है. प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री जैसे पदों पर विराजमान लोग आनन-फ़ानन में अपने सबसे पसंदीदा शगल की ओर बढ़ चुके हैं. यानी जब फंस जाओ, परेशान हो जाओ, तो मदद की भीख मांगना शुरू करो.

फ़ोन की घंटियां बजनी शुरू हो चुकी हैं. पिछले दो दिनों में वहां के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने अलग-अलग फ़ोन कॉल्स पर चीन, ईरान और ब्रिटेन में अपने समकक्षों से बात की है. ये तीन फ़ोन कॉल्स तो ऐसे हैं जिनकी जानकारी सार्वजनिक है. बाक़ी, किनसे किनसे और कैसी बात हुई हो, इसकी लिस्ट कई गुना लंबी भी हो सकती है. ऐसे में ये सवाल उठ रहे हैं कि अगर भारत-पाकिस्तान में जंग छिड़ी तो कौन से देश हमारे साथ आएंगे? कौन पाकिस्तान का पक्षधर होगा? कौन से देश टांग अड़ाने से कतराएंगे? और, कौन से देश थाली के बैंगन के समान हैं? अब तक ये तस्वीर कितनी साफ़ हुई है? एक- एक कर के समझते हैं

भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है (PHOTO-AFP)

सबसे पहले जानते हैं कि पाकिस्तान ने कहां-कहां फ़ोन घुमाया. 27 अप्रैल को पाकिस्तान और चीन के विदेश मंत्रियों ने फ़ोन पर बात की. क्या बात हुई दोनों के बीच? चीनी न्यूज़ एजेंसी शिन्हुआ के मुताबिक़

  • डार ने भारत के साथ तनाव के बारे में उन्हें जानकारी दी.
  • चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने कहा कि चीन हालात पर क़रीबी नज़र रखे हुए है.
  • चीनी विदेश मंत्री ने कहा चीन और पाकिस्तान अडिग मित्र हैं. चीन पाकिस्तान की वैध सुरक्षा चिंताओं को पूरी तरह समझता है. और, उसकी संप्रभुता तथा सुरक्षा हितों की रक्षा में उसके साथ खड़ा है.
  • उन्होंने ये भी कहा कि चीन, पाकिस्तान के आतंकवाद विरोधी कोशिशों में उसके साथ खड़ा है.
 चीन ने पहलगाम हमले पर पाकिस्तान की 'स्वतंत्र जांच' की मांग का विरोध किया है (PHOTO-India Today)

अब ये तो चोर मचाए शोर वाली बात हो गई. क्योंकि समझ से बाहर है कि आतंकवाद को पनाह देने वाले पाकिस्तान की ओर से कौन सी आतंकवाद विरोधी कोशिशें होती हैं. इशाक़ डार ने अगला फ़ोन ब्रिटेन को लगाया. ब्रिटेन के विदेश सचिव डेविड लैमी से भी फोन पर चर्चा की. डार ने लैमी से बात करते हुए भारत के आरोपों को झूठा क़रार दिया. डेविड लैमी ने संवाद की अहमियत की बात की.
अब प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ की बात करते हैं. 26 अप्रैल को शरीफ़ और ईरान के राष्ट्रपति मसूद पजेश्कियन की फ़ोन पर बात हुई. ईरान की सरकारी समाचार एजेंसी IRNA के मुताबिक, शरीफ़ ने भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव घटाने में ईरान की तत्परता का स्वागत किया. दरअसल, ईरानी विदेश मंत्री अब्बास अराक़ची ने इसके पिछले दिन ही दोनों देशों के बीच मध्यस्थता करने की पेशकश की थी.

अब अमेरिका की बात करते हैं. अमेरिका इस वक़्त दोनों ही देशों से संपर्क में है. 27 अप्रैल को इसकी आधिकारिक पुष्टि हुई. अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने न्यूज़ एजेंसी रॉयटर्स को ईमेल पर भेजे एक बयान में कहा,

  • वहां पर हालात बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं. हमने घटनाक्रम पर बारीकी से नज़र रखी है. हम कई स्तरों पर दोनों ही देशों से संपर्क में हैं. और, दोनों से ये अपील करते हैं कि एक ज़िम्मेदाराना समाधान निकाला जाए.
  • हम इस आतंकी हमले की निंदा करते हैं. और, आतंक के ख़िलाफ़ लड़ाई में भारत के साथ हैं.

इसके पहले 25 अप्रैल को ट्रंप का भी बयान आया था. मीडिया से बात करते हुए उन्होंने हमले की निंदा की. कहा कि भारत और पाकिस्तान अपने-अपने स्तर पर स्थिति को सुलझा लेंगे. लेकिन वो कश्मीर विवाद की तारीख़ से अनभिज्ञ निकले. बोल पड़े कि ये विवाद डेढ़ हज़ार साल से चल रहा है. लेकिन अमेरिका का रुख़ जांचने परख़ने के लिए इतनी जानकारी काफ़ी नहीं है. हमले के बाद वहीं से आए कुछ और बयान भी देख लेते हैं.

  • हमले वाले दिन अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने ट्रुथ सोशल पर लिखा, "अमेरिका, आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत के साथ मजबूती से खड़ा है." ट्रंप ने अगले दिन प्रधानमंत्री मोदी को फोन भी किया. और, इस हमले की निंदा की.
  • हमले वाले दिन ही अमेरीकी उपराष्ट्रपति जेडी वैन्स ने एक्स पर पोस्ट कर संवेदना व्यक्त की. उस दौरान वो सपरिवार भारत दौरे पर थे. हमले के पिछले दिन उनकी पीएम मोदी से मुलाक़ात भी हुई थी.
  • 25 अप्रैल को अमेरिकी डायरेक्टर ऑफ़ इंटेलिजेंस तुलसी गबार्ड ने आतंकियों की तलाश में भारत का साथ देने की बात की. उन्होंने एक्स पर लिखा, हम इस इस्लामी आतंकवादी हमले के बाद भारत के साथ खड़े हैं.
  • 27 अप्रैल को अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी FBI के डायरेक्टर काश पटेल ने हमले के पीड़ितों के प्रति संवेदना व्यक्त की. और, भारत से लगातार साथ देने का वादा किया.

कुल मिला कर देखें तो इन बयानों से समझा जा सकता है कि फिलहाल अमेरिका कोई पक्ष लेता नहीं दिख रहा है. भारत को समर्थन देने की बात तो हो रही है. लेकिन किसी भी स्तर पर पाकिस्तान की आलोचना नहीं दिखाई दे रही. अब ये तो हुई मौजूदा वक़्त की बातें. इतिहास हमें क्या बताता है? उससे हम वर्तमान के बारे में क्या अंदाज़ा लगा सकते हैं?

  • सन् 1947. बंटवारे के वक्त जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के सामने फैसला करने का मौका आया. हिंदुस्तान में शामिल होना या पाकिस्तान में. हरि सिंह ने शुरुआत में आज़ाद रहने का फैसला किया, लेकिन जल्द ही पाकिस्तान से आए कबाइली हमलावरों ने कश्मीर पर धावा बोल दिया. संकट में घिरे हरि सिंह ने मदद के लिए भारत से हाथ मिलाया. और, इस तरह जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा बना.
  • 1947-48 की लड़ाई के बाद 1949 में कराची समझौता हुआ. यूनाइटेड नेशंस(UN) की निगरानी में एक सीज़फायर लाइन बनी. जिसे बाद में नियंत्रण रेखा यानी LoC कहा गया. लेकिन ये सिर्फ एक अस्थायी शांति थी. कश्मीर पर विवाद चलता रहा. पाकिस्तान ने दुनिया भर में इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश की, पर भारत ने हमेशा इसे द्विपक्षीय मामला बताया, जैसा कि 1972 के शिमला समझौते में तय हुआ था.

अब अमेरिका के रुख पर नज़र डालिए. आज भले भारत और अमेरिका की साझेदारी मजबूत हो, लेकिन शुरुआती दौर में ऐसा नहीं था. सैम बर्क अपनी किताब Mainsprings of Indian and Pakistani Foreign Policies में लिखते हैं कि अमेरिका की नजर में सबसे बड़ी समस्या साम्यवाद थी. जबकि तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू के लिए उपनिवेशवाद सबसे बड़ा खतरा था. अमेरिका ने पाकिस्तान को अपना सहयोगी चुना, क्योंकि पाकिस्तान साम्यवाद विरोधी था. UN में भी अमेरिका और ब्रिटेन ने कई बार पाकिस्तान के पक्ष में वोट डाले.

सोवियत संघ यानी रूस का भी रुख दिलचस्प रहा. शुरू में सोवियत संघ ने कश्मीर के मसले पर तटस्थता दिखाई, लेकिन धीरे-धीरे वह भारत के नजदीक आया. 1955 में सोवियत नेता बुल्गानिन और ख्रुश्चेव श्रीनगर आए और एलान किया कि अगर कभी जरूरत पड़ी तो हम साथ हैं.

अब बात करें चीन की. 1950 के दशक में चीन भी कश्मीर पर तटस्थ था, लेकिन जैसे-जैसे भारत और चीन के बीच सीमा विवाद बढ़ा, चीन ने पाकिस्तान के साथ नजदीकियां बढ़ानी शुरू कर दीं. 1960 के दशक में पाकिस्तान ने चीन से दोस्ती बढ़ाई और यूएन में चीन के समर्थन में भी रुख अपनाया. 1962 का भारत-चीन युद्ध भारत के लिए एक करारा झटका था. भारत को एहसास हुआ कि केवल 'गुटनिरपेक्षता' के भरोसे सुरक्षा संभव नहीं. भारत ने पश्चिमी देशों से सैन्य मदद मांगी. इसी दौर में अमेरिका और ब्रिटेन ने भारत को सैन्य मदद भेजी, लेकिन बदले में कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत की मांग भी तेज हो गई.

 1971 में पाकिस्तान के सरेंडर के साथ बांग्लादेश का गठन हुआ (PHOTO-India Today)

फिर 1971 में एक और बड़ा मोड़ आया जब पाकिस्तान टूटा और बांग्लादेश बना. इस युद्ध के बाद शिमला समझौता हुआ और नियंत्रण रेखा (LoC) औपचारिक रूप से मान्यता मिली. लेकिन पाकिस्तान ने अपनी आदत नहीं छोड़ी. 1990 के दशक से लेकर आज तक वो आतंकवाद के जरिए कश्मीर को अस्थिर करने की कोशिश करता रहा है. और 9/11 के बाद दुनिया को आतंकवाद का असली चेहरा दिखा. पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में अमेरिका का साथ तो दिया, लेकिन जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को जारी रखा. दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर हमला हुआ. भारत ने पाकिस्तान पर 'सीमापार आतंकवाद' खत्म करने के लिए दबाव बनाया. तब भारत और पाकिस्तान जंग के एकदम करीब पहुंच गए थे.


2001 में भारत की संसद पर हमला हुआ था (PHOTO-India Today Archives)

अब ईरान की बात करते हैं. जब पाकिस्तान वजूद में आया, उसी रोज़ ईरान वो पहला मुल्क था जिसने उसे औपचारिक मान्यता दी. आगे चलकर फरवरी 1955 में दोनों मुल्क एक ही तंबू के नीचे आ बैठे. सेंट्रल ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन यानी CENTO. अमरीका की शह पर बना ये गठजोड़ था, जो सोवियत खतरे को रोकने के लिए बुना गया था. साल 1965 आया. भारत और पाकिस्तान के बीच जंग छिड़ गई. पाकिस्तान के फाइटर जेट्स भारतीय हमला झेलते-झेलते थक गए तो ईरानी सरज़मीं पर उतर आए. ईरान ने उन्हें न सिर्फ आसरा दिया बल्कि उनकी टंकियां भरवाईं.

1971 की जंग में भी यही हुआ. बिना शोर शराबे के ईरान ने पाकिस्तान की मदद की. तब तक ईरान में रेज़ा शाह पहलवी का राज था. शाह ने पाकिस्तान में दिल खोलकर पैसा बहाया. इस्लामी दुनिया में पाकिस्तान के नए उभरते कद को शाह की सरपरस्ती मिल रही थी. मगर 1979 में तेहरान के फलक पर तूफान आ गया. शाह को जनता ने उखाड़ फेंका. इस्लामी क्रांति हुई. खुमैनी का दौर शुरू हुआ. तब भी पाकिस्तान सबसे पहले नए ईरान को मान्यता देने वालों में था.

> 1980 में ईरान-इराक युद्ध भड़का. पाकिस्तान ने परदे के पीछे से ईरान को समर्थन दिया. इधर अफगानिस्तान में सोवियत फौजें घुस चुकी थीं. अमरीका और सऊदी अरब ने मिलकर मुजाहिदीनों को हथियार दिए. पाकिस्तान ने उनका अड्डा बनना मंजूर कर लिया.

> 80 का दशक बीता. सोवियत संघ टूटा. अफगानिस्तान में लड़ाई अपनों में होने लगी. पाकिस्तान ने नया पत्ता फेंका, तालिबान. 1996 में तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया. शिया मुस्लिमों पर जुल्म बढ़ा. ईरान तिलमिला गया. उसने अहमद शाह मसूद के नॉर्दर्न अलायंस को हथियार और मदद दी.

 अमरीका ने अफगानिस्तान में 'वॉर ऑन टेरर' शुरू किया था (PHOTO-India Today)

> 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ. अमरीका ने अफगानिस्तान पर धावा बोला. पाकिस्तान ने अपना नकाब बदला. वॉर ऑन टेरर में अमरीका का साथी बना.

> समय के चक्र में अगस्त 2021 आया. तालिबान ने फिर से काबुल पर काबिज़ हो गया. पाकिस्तान ने फिर तालिबान को गले लगाया. मगर जल्द ही समझ आ गया कि ये डील महंगी पड़ने वाली है. तालिबान ने तहरीके तालिबान पाकिस्तान (TTP) को सिर उठाने का मौका दिया. पाकिस्तान के लिए आफत बन गई. दूसरी तरफ ईरान भी परेशान था. उसकी 972 किलोमीटर लंबी सीमा अफगानिस्तान से लगी है. वहां से चरमपंथी ईरान में घुसपैठ करने लगे.

> सीमा पर गोलियां चलीं. सैनिक मारे गए. तालिबान और ईरान के बीच तनाव बढ़ता चला गया. पाकिस्तान और ईरान अब एक-दूसरे पर आतंकियों को पनाह देने का आरोप लगाने लगे. सबसे बड़ा कारण बना बलोच आबादी. जो पाकिस्तान के बलूचिस्तान और ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान दोनों में बंटी हुई है. जनवरी 2024 में मामला फट पड़ा. दोनों मुल्कों ने एक-दूसरे के भीतर मिसाइल हमले किए.

> अब जरा नजर घुमाते हैं सऊदी अरब की तरफ. पाकिस्तान और सऊदी अरब के रिश्ते भी पुराने हैं. जब पाकिस्तान बना, सऊदी ने भी उसे खुलकर स्वीकारा. धर्म के नाम पर नजदीकियां बनीं. खासकर अफगान मुजाहिदीनों की फंडिंग में सऊदी अरब सबसे बड़ा दाता बना. पाकिस्तान ने भी सऊदी के हितों की रक्षा के लिए खुद को झोंक दिया. 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद ईरान-सऊदी तनाव चरम पर पहुंचा. पाकिस्तान दोनों के बीच एक अदृश्य रेखा पर चलने लगा.

> अफगान जंग के दौरान पाकिस्तान का झुकाव सऊदी की तरफ रहा. तालिबान के शुरुआती दौर में भी सऊदी अरब ने समर्थन दिया. तालिबान को 1996 में मान्यता देने वाले तीन देशों में सऊदी, पाकिस्तान और UAE थे. मगर जैसे ही तालिबान ने शिया मुस्लिमों का कत्ल करना शुरू किया, ईरान का गुस्सा आसमान पर पहुंच गया.

> हाल के वर्षों में जब पाकिस्तान की माली हालत डांवाडोल हुई, तो सऊदी अरब ने अरबों डॉलर की मदद दी. लेकिन सऊदी को भी अब पाकिस्तान पर भरोसा नहीं रहा. 2015 में यमन युद्ध के वक्त पाकिस्तान ने सऊदी के साथ सैन्य मदद देने से इंकार कर दिया था. तब से सऊदी ने अपने भरोसे का सेंटर कहीं और शिफ्ट करना शुरू कर दिया.

पाकिस्तान से इतर भारत ने अपने लिए एक अलग राह बनाई है, रणनीतिक स्वायत्तता. यानी न पूरब, न पश्चिम. भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भी इसी नीति पर चला. अमरीका के दबाव के बावजूद रूस से रिश्ते निभाए. वही नीति ईरान के मामले में भी चली. 2019 में अमरीकी दबाव में भारत ने ईरान से तेल खरीदना बंद किया. मगर रणनीतिक प्रोजेक्ट जैसे चाबहार पोर्ट, इंटरनेशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (INSTC) और अश्गाबात एग्रीमेंट पर काम जारी रखा. चाबहार पोर्ट के ज़रिए भारत ने अपने लिए एक वैकल्पिक ट्रेड रूट तैयार किया. सऊदी अरब और अमरीका के साथ रिश्ते मजबूत रखने के बावजूद, भारत ने ईरान से रिश्ता कमजोर नहीं होने दिया.

एक और दिलचस्प बात. ईरान ने कई बार कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाने से इंकार कर दिया. अक्टूबर 2023 में तेहरान के कल्चरल काउंसलर मोहम्मद अली रब्बानी ने जम्मू-कश्मीर में अमन-चैन की तारीफ की. शिया समुदाय के लिए भारत को सबसे सुरक्षित ठिकाना बताया. ये बयान साफ इशारा था कि ईरान भारत के साथ अपने रिश्ते अलग पैमाने पर देखता है. तो कहानी साफ है. ईरान-पाकिस्तान के रिश्ते इतिहास से आज तक उठते-गिरते रहे हैं.

सऊदी अरब के साथ पाकिस्तान की दोस्ती भी अब उतनी अटूट नहीं रही. अगली ख़बर पर बढ़ने से पहले एक आख़िरी बात. इस बार का माहौल 1965 या 1971 से अलग है. भारत आज एक उभरती महाशक्ति है. दुनिया उसे एक जिम्मेदार लोकतंत्र और वैश्विक शक्ति के तौर पर देखती है. पाकिस्तान की हालत आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य मोर्चे पर कमजोर है. अगर टकराव होता है तो कूटनीतिक और रणनीतिक तौर पर भारत को ज्यादा समर्थन मिलने की संभावना है.

अब ईरान और सऊदी की बात हो गई तो इज़राइल की भी बात कर ही लेते हैं. इज़रायल और पाकिस्तान... दो मुल्क़ जो इतिहास के नक़्शे पर लगभग साथ-साथ वजूद में आए. दोनों ब्रिटिश साम्राज्यवाद की देन. दोनों मज़हब के नाम पर बने. पर एक ने टेक्नोलॉजी, और सुरक्षा में दुनिया को चौंका दिया. और दूसरा अभी तक अपने वजूद को सही साबित करने में उलझा है. पाकिस्तान ने इज़राइल को आज तक मान्यता नहीं दी. उसका पासपोर्ट आज भी कहता है, 'सारी दुनिया के लिए वैध, सिवाय इज़राइल के.'


पीएम मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं जो इजरायल की यात्रा पर गए (PHOTO-India Today)

तो सवाल है कि इज़राइल किस तरफ झुकेगा? सीधी बात है. इज़राइल का झुकाव हिंदुस्तान की तरफ रहेगा. क्यों? क्योंकि पाकिस्तान के लिए इज़राइल हमेशा एक दुश्मन रहा है. हर मसले पर पाकिस्तान ने खुले मंच से इज़राइल का विरोध किया. संयुक्त राष्ट्र से लेकर इस्लामी सहयोग संगठन तक, हर मोर्चे पर इज़राइल के खिलाफ़ वोट डाला. दूसरी तरफ़ भारत और इज़राइल का रिश्ता बीते तीन दशकों में मज़बूती से बढ़ा है. डिप्लोमैटिक रिश्ते. डिफेंस डील्स, टेक्नोलॉजी ट्रांसफर, इंटेलिजेंस कोऑपरेशन में आज इज़राइल भारत का भरोसेमंद साथी है.

तो कुलजमा बात ये है कि अमेरिका अब भी इंतजार कर रहा है. चीन-तुर्की-अजरबैजान खुले तौर पर पाकिस्तान के साथ जाते दिख रहे हैं. वहीं भारत की बात करें तो वर्तमान समय में इजरायल एक ऐसा देश है जो पूरे दमखम के साथ भारत के साथ खड़ा है. कारगिल की लड़ाई में भी इजरायल ने भारत को गाइडेड हथियार दिए थे. इन्हीं की बदौलत भारतीय वायुसेना ने ऊंचाई पर बैठी पाकिस्तानी सेना के हौसले पस्त कर दिए थे.

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